लद्दाखी सत्तू और बदलते समय की कहानी...जानिए क्या हैं सच्चाई

Mar 6, 2025 - 12:30
Apr 3, 2025 - 13:37
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लद्दाखी सत्तू और बदलते समय की कहानी...जानिए क्या हैं सच्चाई

लेह, लद्दाख: पहाड़ों के बीच बसा लद्दाख अपनी खूबसूरती, सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं के लिए जाना जाता है। लेकिन समय के साथ यह क्षेत्र भी बदलाव की राह पर है। आधुनिकता की लहर ने यहाँ की संस्कृति, खान-पान और रहन-सहन को काफी हद तक प्रभावित किया है।

लद्दाखी कहावत कहती है – “लद्दाखी खाते हैं सत्तू, पहनते हैं पट्टू, चढ़ते हैं टट्टू।” पर अब यह कहावत कितनी सही बैठती है? आधुनिकता के इस दौर में क्या लद्दाखी लोग अब भी सत्तू खाते हैं? क्या पहाड़ों की ठंडी हवाओं में पट्टू (लद्दाखी ऊनी कपड़ा) की गरमाहट बची है? और क्या टट्टू (घोड़े की प्रजाति) अब भी सफर का मुख्य साधन है?

1962 के बाद बदला लद्दाख

लद्दाख के बुजुर्ग दोरजी बताते हैं कि 1962 तक लद्दाख पूरी तरह बाकी भारत से कटा हुआ था। श्रीनगर से लेह जाने का कोई पक्का रास्ता नहीं था। लोग पैदल और टट्टू पर सवार होकर 15 दिन की कठिन यात्रा करके श्रीनगर पहुँचते थे। लेकिन चीन युद्ध के बाद जब भारतीय सेना को दिक्कतें हुईं, तब जाकर 1963 में सड़क बनी और लद्दाख की कनेक्टिविटी सुधरी।

सड़कें बनना एक बड़ा बदलाव था, जिसने लद्दाख के विकास को गति दी। लेकिन इसके साथ ही यहाँ की संस्कृति भी धीरे-धीरे बदलने लगी।

बदलते समय में लद्दाख की संस्कृति

जहाँ पहले गाँवों में लोकगीत गूंजते थे, वहाँ अब एफएम रेडियो पर बॉलीवुड के गाने सुनाई देने लगे हैं। पारंपरिक वाद्य यंत्र – दामन और सूर बजाने वाले कम हो गए हैं। पहले हर गाँव में एक मोन परिवार होता था, जो पारंपरिक संगीत बजाने का काम करता था, लेकिन अब वे लगभग विलुप्त हो चुके हैं।

खान-पान में भी बदलाव साफ दिखता है। पहले लद्दाख के हर कोने में पारंपरिक पेय छाँग (लोकल बीयर) मिलती थी, जो अब सिर्फ खास अवसरों तक सीमित रह गई है।

सत्तू: लद्दाख का पारंपरिक सुपरफूड

सत्तू का जिक्र होते ही हमारे दिमाग में चने का सत्तू आता है, लेकिन लद्दाख में यह जौ (बार्ली) और गेहूँ से बनता है। पहले गेहूँ को भिगोकर उसे भूना जाता है, फिर पीसकर सत्तू तैयार किया जाता है। यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है और लंबी यात्राओं में ऊर्जा बनाए रखने के लिए आदर्श आहार माना जाता है।

लेह के मुख्य बाज़ार में सत्तू खोजना आसान नहीं था। दुकानों में ड्राई फ्रूट्स, सूखे सेब, खुबानी और यहाँ तक कि याक और गाय के सूखे दूध से बनी चीजें तो आसानी से मिल गईं, लेकिन सत्तू नहीं। काफी खोजबीन के बाद एक दुकानदार ने बताया कि उसके पास दस किलो सत्तू है और वह इसे ₹100 प्रति किलो में बेचेगा। यह सुनकर दोरजी हँसते हुए बोले – “अरे, इतने में तो सोना मिल जाता है!”

आखिरकार दो किलो लद्दाखी सत्तू की पोटली बंध गई, और उसके स्वाद को परखने के लिए हमने मुट्ठी में लिया और सीधे खा लिया। यह वही पुराना स्वाद था, जो सदियों से लद्दाखी यात्रियों और ग्रामीणों की ऊर्जा का स्रोत बना हुआ है।

आधुनिकता बनाम परंपरा

लद्दाख अब बदल रहा है। सड़कें बनीं, बाजार विकसित हुए, और इंटरनेट ने यहाँ की दुनिया को करीब ला दिया। लेकिन इस बदलाव के बीच पारंपरिक खान-पान और संस्कृति कहीं पीछे छूटती जा रही है। दोरजी जैसे बुजुर्गों को चिंता है कि आने वाली पीढ़ी लद्दाख की पुरानी परंपराओं को भूल न जाए।

परंपरा और आधुनिकता के इस संतुलन में, लद्दाखी सत्तू जैसे पारंपरिक खाद्य पदार्थों को बचाए रखना जरूरी है। यह न सिर्फ स्वास्थ्यवर्धक है, बल्कि यह लद्दाख की पहचान भी है।

लद्दाख के बदलते समय के बीच, सत्तू की एक पोटली और उसके स्वाद की याद के साथ हम अपनी अगली यात्रा की ओर बढ़ गए – इस उम्मीद में कि यह अनमोल विरासत आने वाली पीढ़ियों तक बनी रहेगी।

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