दक्षिण में भाजपा: एक सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरण

2024 के आम चुनावों में दक्षिण भारत में भाजपा के प्रदर्शन को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक समय था जब दक्षिण भारतीय राजनीति में भाजपा का नाम केवल सीमित प्रभाव तक ही था, लेकिन इस चुनाव ने साफ कर दिया कि पार्टी अब अस्तित्व नहीं बल्कि वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही है—और उसे जीत भी रही है।
कर्नाटक में भाजपा की मजबूती पहले से जानी जाती है, जहां 26 में से 19 सीटें मिलीं। लेकिन असली कहानी तेलंगाना और आंध्रप्रदेश की है—तेलंगाना में 18 में से 8 और आंध्र में 25 में से 21 सीटें भाजपा और उसके सहयोगियों को मिलीं।
यह संख्या सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक बदलाव की ओर संकेत करती है।
केरल और तमिलनाडु: अगली चुनौती
भले ही केरल में भाजपा को केवल एक सीट मिली हो, लेकिन 20% वोट शेयर बिना किसी गठबंधन के मिला—यह कोर वोटबैंक है। तमिलनाडु में भी पार्टी ने 12% वोट शेयर हासिल किया, जो संकेत है कि राजनीतिक जमीन तैयार हो रही है।
याद करें कि 2009 में उत्तर प्रदेश में भाजपा को केवल 20% वोट मिले थे, लेकिन पांच साल में 2014 की सुनामी आई। दक्षिण भारत में आज की स्थिति वैसी ही लगती है—सुनामी से पहले की शांति।
धर्म और संस्कृति: दक्षिण की अलग पहचान
दक्षिण भारत का समाज धर्म को आत्मा में बसाए हुए है, लेकिन विचारधारा से बंधा हुआ नहीं है। यहाँ हिंदू, मुस्लिम, ईसाई—सभी में आपसी मिश्रण की परंपरा रही है। मंदिर यहाँ आस्था से पहले संस्कृति का प्रतीक हैं।
थलापति विजय जैसे ईसाई अभिनेता का मंदिरों में जाना हो, या भरतनाट्यम में मुस्लिम लड़कियों का पुरस्कार जीतना—यहां धर्म नहीं, संस्कृति ही पहचान है।
21वीं सदी और कट्टरता की आमद
2000 के दशक में अमेरिका के इराक पर हमले के बाद, दक्षिण में भी तब्लीगी जमात और मिशनरीज ने अपनी पकड़ बढ़ाई। लेकिन इससे सबसे ज़्यादा नुकसान हिंदुओं को हुआ, क्योंकि उनके पास ऐसी कोई संस्थागत ताकत नहीं थी।
2024: जागरण की स्पष्ट तस्वीर
इस चुनाव ने साफ कर दिया कि दक्षिण का हिंदू समाज अब जाग चुका है। भाजपा के उभार ने कांग्रेस और अन्य प्रांतीय दलों को हिला दिया है।
अब यह लड़ाई केवल चुनावी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक जागरण और समरसता की है। भाजपा को अब दक्षिण की संस्कृति को समझकर ही आगे बढ़ना होगा—कभी सॉफ्ट, कभी हार्ड हिंदुत्व के बीच संतुलन बनाकर।
एक भारत, सांस्कृतिक समरसता के साथ
आज यदि दक्षिण से 49 सीटें नहीं आतीं, तो केंद्र में सरकार बनाना मुश्किल था। यह दिखाता है कि भारत अब सच में एक राष्ट्र के रूप में राजनीतिक रूप से जुड़ रहा है।
विंध्याचल के पार हिंदू एकता की जो लौ जली है, वह अब पूरे भारत को एक नया रूप दे सकती है—लेकिन इसके लिए परिपक्वता और आपसी समझ ज़रूरी है।
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